Thursday 13 September 2018

Waqt guzar gaya

कहीं पढ़ा और
कुछ दोस्तों से
सुना
कि
समय गुज़र
रहा है
तेज़ी से।

अपने सफ़ेद
बालों से
पूछा
तो पुख्ता
हुआ

घुटनों ने भी
हामी भरी
और याददाश्त
बड़ी नज़ाकत से
खांसी

चेहरे की झुर्रियों ने
कहा
"तो क्या ?"
हम तो फिर भी
हँसेंगे।

गौर से देखा
तो आईने से
देख रहे थे
पिताजी हमें

और मुँह खोला तो
माताजी की
बोली निकली।

अब पता चला
वक़्त का छलावा
आने से पहले
बुलावा

हम पूरी तरह
अतीत में
ढल चुके थे

हम अपने
माँ बाप में
तब्दील
हो चुके थे। 

Aprakaashit kavya (Unpublished poetry)



जलते हैं कुछ लोग
कहते हैं
क्या लिखते हो ?
पन्ने स्याह
करते हो ?
कल गुज़र जाओगे
तो इन्हे कोरा
कौन करेगा ?
इतने सारे
शब्दों के रंगों को
गोरा
कौन करेगा ?

मैंने कहा
कुछ पन्ने
रंगीन ही सही
कुछ सवाल
संगीन ही सही

हर किश्ती
किनारे लगे
ज़रूरी तो नहीं
हर बाग़ में फवारें लगें
ज़रूरी तो नहीं

कुछ चिड़े तो
यूँ ही गा कर
गुज़र गए
कितने महान
लोग चुपचाप
अपनी छाप
छोड़ गए

हर कलम
बिकाऊ हो
ज़रूरी तो नहीं
हर कलाम पर
नोट बरसे
ज़रूरी तो नहीं।