Saturday, 26 January 2019

safar

 या तो आँख में किर्च थी
या शीशा गन्दा
मिटटी की लकीर थी
या रेंगता परिंदा

मुझे कुछ दिखा न था
पर फिर भी समझ थी

कितने समझ को हम
सन्नाटे में समेट लेते हैं
उबलते सवालों  को धैर्य का
गिलाफ ओढ़ा देते हैं

सुबह कब शाम हो जाती है
और शाम रात में तब्दील

जो बहार से देख रहे होते हैं
उन्हें लगता है , बस यही है
हस्र , इन्तेक़ाम , मामला
दफन हो गया ,

हर सन्नाटा शांति नहीं होती
यह समझ कुछ के पल्ले
पड़ती है

बाकी आगे बढ़ जाते हैं
बेफिक्री की मोटर पर

मगर सड़क जब मर्ज़ी
सोये भूत की तरह
जाग सकती है

अपने किये का शीशा दिखा
सकती है
पासा जो पलटा
रूख जो उल्टा
तो रिवर्स कैसे करोगे
बीते समय को ? 

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